केजरीवाल नहीं बता रहे अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का पासवर्ड, क्या कहता है इस पर कानून?

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केजरीवाल नहीं बता रहे अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का पासवर्ड, क्या कहता है इस पर कानून?

 


अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी क्या हुई बीजेपी के लिए नित नए राजनीतिक पैंतरों को निपटने की मेहनत रोज़ करनी पड़ रही है. यही नहीं कानून के जानकार और पत्रकार भी एक पैर पर खड़े हैं कि जाने कब वह कौन सा ऐसा कमाल कर दें या बात कह दें कि कानून की किताब में खोजना पडे कि क्या ऐसा भी हो सकता है? 28 मार्च को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने दिल्ली की राउज एवेन्यू स्पेशल कोर्ट में पेश किया. ईडी ने रिमांड बढ़ाने की मांग की जिसमें जज से बाकी दलीलों के साथ ये भी कहा कि अरविंद केजरीवाल अपने मोबाईल फोन का पासवर्ड बताने से मना कर रहे हैं. यहां से उठता है ये सवाल कि आखिर क्या कोई आरोपी जांच एजंसी या फिर पुलिस को अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के पासवर्ड देने से इंकार कर सकता है या फिर क्या जांच एजेंसी या फिर पुलिस जबरन किसी आरोपी से इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के पासवर्ड के पासवर्ड ले सकती है?

जबरन नहीं ले सकते पासवर्ड

दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में इस बात पर जोर दिया है कि जब मुकदमा चल रहा हो तो किसी आरोपी को अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और ऑनलाइन खातों के पासवर्ड का खुलासा या खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत सुरक्षा का हवाला देते हुए, जो आत्म-दोषारोपण के खिलाफ अधिकार की गारंटी देता है, न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी की पीठ ने ई-संपर्क सॉफ्टेक और इसके आरोपों से जुड़े एक मामले में एक आरोपी को जमानत देते हुए यह टिप्पणी की. इस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो ने जमानत याचिका का विरोध करते हुए ये तर्क दिया था कि आरोपित, कंपनी का एक निदेशक, घोटाले में एक प्रमुख आरोपी है और उसने अपने डिवाइस, ईमेल और क्रिप्टो वॉलेट खातों के लिए पासवर्ड देने करने से इनकार कर दिया है. 

अदालत ने कहा, "जांच एजेंसियां ​​किसी से ऐसी धुन में गाने की उम्मीद नहीं कर सकतीं जो उनके कानों के लिए संगीत की तरह हो, जबकि उन्हें संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत संरक्षित किया गया है." इसमें आगे कहा गया कि चूंकि मुकदमा चल रहा है, संवैधानिक सुरक्षा के कारण आरोपी को पासवर्ड या इसी तरह के विवरण का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला 

जून 2023 में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि जांच में ‘सहयोग’ का मतलब ‘स्वीकारोक्ति’ नहीं हो सकता. इस प्रकार जांच एजेंसी आरोपियों के खिलाफ सिर्फ इसलिए मामला नहीं बना सकती क्योंकि वे चुप रहने का विकल्प चुनते हैं. पीठ ने उत्तर प्रदेश के एक आपराधिक मामले की सुनवाई करते हुए पूछा, ‘सहयोग का मतलब कबूलनामा नहीं हो सकता…वह (आरोपी) चुप रहना क्यों नहीं चुन सकता? जब संविधान प्रत्येक व्यक्ति को चुप रहने का अधिकार देता है, तो इसे असहयोग के तर्क के रूप में कैसे उठाया जा सकता है?’ चुप्पी का अधिकार भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) में है, जिसमें कहा गया है कि किसी को भी अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है. यह प्रावधान आरोपी को आत्म-दोषारोपण के खिलाफ अधिकार देता है, जो कानून का एक मौलिक सिद्धांत है.

संविधान का अनुच्छेद 20(3)

अनुच्छेद 20(3) यह सुनिश्चित करता है कि अपराध के आरोपी किसी भी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा. इसका मतलब यह है कि किसी व्यक्ति को ऐसे सबूत या गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जो खुद को दोषी ठहरा सके. यह एक मौलिक अधिकार है जो व्यक्तियों को अपने ही आपराधिक मुकदमे में गवाह बनने के लिए मजबूर होने से बचाता है. अनुच्छेद 20(3) का जिक्र मीडिया में 2019 में तब हुआ जब पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम को सीबीआई ने 4 दिन की रिमांड पर लिया. इससे पहले सीबीआई चिदंबरम पर आरोप लगा चुकी थी कि वो इस मामले की जांच में सहयोग नहीं कर रहे हैं. चिदंबरम जानकारी छिपा रहे हैं और सीबीआई की पूछताछ में चुप्पी साधे रखते हैं. उनके हिरासत में लिए जाने के बाद भी सबसे ज्यादा चर्चा 'राइट टू साइलेंस' की होती रही कि क्या है 'राइट टू साइलेंस' यानी 'चुप रहने का अधिकार' और क्या इस अधिकार का इस्तेमाल पी चिदंबरम कर सकते हैं? अगर पी चिदंबरम 'राइट टू साइलेंस' का इस्तेमाल करके चुप्पी साधे रखते हैं तो सीबीआई उनके खिलाफ कैसे जांच करेगी? ये सब सवाल मीडिया में ज़ोर शोर से बहस का विषय बने और तब जिक्र हुआ अनुच्छेद 20(3) का, जिसमें भारत के हर नागरिक को ये मौलिक अधिकार देता है कि वो अपने खिलाफ गवाही नहीं दे.

कोर्ट में सबूत के लिए होगी मुश्किल

हालांकि, पूछताछ से मिली जानकारी को सीबीआई कोर्ट में सबूत के तौर पर पेश नहीं कर सकती. हिरासत में की गई पूछताछ का सबूत के तौर पर मूल्य नहीं होता. सीबीआई पूछताछ में दी गई जानकारी से कोर्ट में आरोपी मुकर भी सकता है. इसलिए जांच एजेंसी की कोशिश होगी कि वह पूछताछ के आधार पर आरोपी के खिलाफ पुख्ता सबूत हासिल करे. एजेंसियों और पुलिस की पूछताछ में राइट टू साइलेंस का अधिकार मिलने पर नारको एनालिसिस, ब्रेन मैपिंग और लाइ डिटेक्शन टेस्ट जैसी जांच का कोई मतलब नहीं रह जाता. साथ ही 2010 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नारको एनालिसिस, ब्रेन मैपिंग और लाई डिटेक्टर टेस्ट को संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का उल्लंघन माना था. 

इस सब के बीच ईडी ने कोर्ट में 1 अप्रैल को अरविंद केजरीवाल की समाप्त हुई रिमांड अवधि पर कोर्ट को बताया कि अरविंद अरविंद केजरीवाल किसी भी सवाल का ठीक से जवाब नहीं दे रहें हैं. ये आशंका पहले से जतायी जा रही थी कि केजरीवाल पूछताछ के दौरान कोई अहम जानकारी नही देने जा रहें हैं. फिलहाल इस लेख के लिखे जाने तक अरविंद केजरीवाल को 15 अप्रैल तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है.    

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