किसान जागरण के पुरोधा थे स्वामी सहजानंद सरस्वती- रत्नाकर
*विश्वास के नाम*
वारिसलीगंज:उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में 1889 के महाशिवरात्रि के दिन जन्मे दंडी संन्यासी स्वामी सहजानंद सरस्वती किसान जागरण के पुरोधा थे। 18 वर्ष के आयु में गृह त्याग करने के बाद भगवान की खोज में मठ मंदिर एवं तीर्थस्थलों में भ्रमण करने के बाद भगवान का दर्शन नहीं हुआ। क्योंकि वह किसान भगवान को खोज रहे थे। खेतों में हल चलाते कुदाल चलाते, फसलों की बुआई करते गर्मी, बरसात, ठंडक का सामना करते हुए किसानों का दर्शन हुआ। वे अन्नदाता है विडंबना है कि अन्न का उपज का बड़ा हिस्सा जमींदार हड़प लेते थे, और कठिन परिश्रम करने के बाद भी किसानों को कुछ नहीं मिलता था। शोषण अन्याय के चक्की में पिसते किसान प्रतिकार भी नहीं कर पाते थे और सब कुछ भाग्य और भगवान पर छोड़ देते थे। यह स्थिति बहुत ही दुखद था तो स्वामी सहजानंद सरस्वती ने निश्चय कर लिया कि किसान ही हमारे भगवान हैं। इस भगवान को जगा कर प्रतिकार की क्षमता भरकर जुल्मी जमींदार और अंग्रेजी राज को समाप्त करने के लिए आंदोलन करेंगे। बिहार में 1929 में स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में बिहार प्रदेश किसान सभा का गठन हुआ। सभा गठन की बैठक सोनपुर मेले के समय हुआ । इसमें बिहार के हस्तियों ने भाग लिया। बिहार प्रदेश किसान सभा के गठन के बाद खासकर 1939 के आसपास आते आते किसान सत्याग्रह के लिए किसानों को तैयार किया गया। इस सत्याग्रह में किसानों के साथ स्वामी सहजानंद सरस्वती, कार्यानंद शर्मा, यदुनंदन शर्मा साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि ने भी हल जोतने का काम किया।
नवादा जिले में किसान सत्याग्रह में सबसे बड़ा नाम काशीचक प्रखंड के रेवरा गांव का है। जहां पुरुषों के साथ नारियों ने भी जिस जमीन को जमींदारों ने नीलाम कर दिया था उसमें हल चलाकर अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए सत्याग्रह किया। इस सत्याग्रह में आसपास के कई गांवों के लोगों की भागीदारी हुई खासकर पूर्व विधायक स्व राम किशन सिंह, मकनपुर निवासी स्व नुनु सिंह और अपसढ़ के स्व ज्वाला प्रसाद सिंह की भागीदारी भी सत्याग्रह में हुआ। अंत में स्वामी सहजानंद सरस्वती के द्वारा चलाए जा रहे किसान आंदोलन से परेशान जमींदारो ने हार स्वीकार कर किसानों की नीलाम जमीन को मुक्त कर दिया।
स्वामी सहजानंद सरस्वती दिल, दिमाग, और हाथ में संतुलन के पैरोकार थे। अर्थात उनके साहित्य में दिल की करुणा, दिमाग की तर्क शीलता और हाथ की कर्म निष्ठा सभी का संतुलन मिलता है। इस संतुलन के मूल की स्थिति है जन्मजात विद्रोही आत्मा जो कहीं स्थिर नहीं रहने दी थी। वे सन्यासी थे मगर रूढ़िवादी नहीं। किसान थे मगर भाग्यवादी नहीं। विद्वान थे मगर मात्र प्रवचन वादी नहीं। लेखक थे मगर उनका लेखन स्वत सुखाय कि नहीं लोक हिताय, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय उनके मंत्र थे। अंत में 26 जून को उन्होंने राज्य के मुजफ्फरपुर में अपना नश्वर शरीर का त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए।
Post a Comment