'हिंदू मैरिज एक्ट में कन्यादान जरूरी नहीं...' हाईकोर्ट ने किस आधार कही ये बात?

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'हिंदू मैरिज एक्ट में कन्यादान जरूरी नहीं...' हाईकोर्ट ने किस आधार कही ये बात?

 


भारतीय शादियां अपनी सदियों पुरानी रस्मों और परंपराओं के लिए दुनियाभर में मशहूर हैं. ऐसी ही एक रस्म है कन्यादान. ये रस्म हिंदू विवाह का एक अहम हिस्सा है, लेकिन क्या ये जरूरी है? नहीं, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा है कि हिंदू मैरिज एक्ट के तहत शादी संपन्न कराने के लिए कन्यादान की रस्म जरूरी नहीं है.


हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने आशुतोष यादव की ओर से दायर एक रिवीजन याचिका पर सुनवाई करते हुए ये बात कही. जस्टिस सुभाष विद्यार्थी ने कहा कि शादी के लिए सिर्फ 'सप्तपदी' (सात फेरे लेना) ही जरूरी रस्म है.


आशुतोष यादव ने अपने ससुराल वालों की ओर से दायर एक आपराधिक मामले पर लड़ते हुए लखनऊ के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के आदेश को चुनौती दी थी. उन्होंने ट्रायल कोर्ट में कहा था कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत 'कन्यादान' की रस्म जरूरी होती है जो उनकी शादी में नहीं हुई थी.


आज इस स्पेशल स्टोरी में जानेंगे आखिर ये कन्यादान की रस्म है क्या? आजकल कई महिलाएं कन्यादान का क्यों करती हैं विरोध? साथ ही सप्तपदी रस्म के बारें में भी विस्तार समझेंगे, जिसे हाईकोर्ट ने जरूरी बताया है.


पहले जानिए क्या होता है कन्यादान?

कन्यादान हिंदू विवाह की एक पारंपरिक रस्म है, जहां पिता या कोई बड़ा पारिवारिक सदस्य पवित्र अग्नि के सामने अपनी बेटी का हाथ लड़के को सौंपते हैं.


इसमें 'हस्त मिलाप' नाम की एक रस्म भी शामिल होती है जिसमें दुल्हन के पिता उसका दाहिना हाथ दूल्हे के हाथ में रखते हैं.


इसे इस तरह समझा जा सकता है कि पिता अपनी बेटी की शादी करा रहे हैं और अब उसे अपने पति के सुख-दुख में जिंदगीभर साथ देने की जिम्मेदारी सौंप रहे हैं.


संस्कृत के अनुसार 'कन्या' का मतलब बेटी और 'दान' का मतलब दान देना होता है.


कन्यादान की रस्म के बाद दुल्हन की माता पवित्र जल दोनों के हाथों पर डालती हैं. साथ ही उनके हाथों में फूल, फल और पान (सुपारी) जैसी चीजें भी रखती हैं. ये सारी रस्में पुरोहित (पुजारी) मंत्र पढ़ते हुए पूरी कराते हैं.


दिलचस्प बात ये है कि कन्यादान की रस्म पूरी होने तक दुल्हन की माता अन्न-जल ग्रहण नहीं करती हैं.


कन्यादान का जिक्र मनुस्मृति में भी मिलता है. कहा जाता है कि शादी से पहले लड़की की सुरक्षा का दायित्व उसके पिता का होता है और शादी के बाद ये जिम्मेदारी पति को सौंप दी जाती है.


हालांकि कई लोग आजकल इस बात से सहमत नहीं हैं. उनका मानना है कि ये रस्म महिलाओं को संपत्ति या किसी चीज के रूप में पेश करती है.


कन्यादान पर क्या चल रही है बहस?

दरअसल, कई लोगों का मानना है कि कन्यादान की रस्म पुरानी हो चुकी है. पहले लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में कर दी जाती थी और उन्हें एक संरक्षक की जरूरत होती थी.


आज के जमाने में इसकी जरूरत नहीं है. कई लोगों का मानना है कि कन्यादान की रस्म महिलाओं के लिए भेदभावपूर्ण है. उनका कहना है कि ये रस्म इस बात को दर्शाती है कि बेटी को किसी चीज की तरह दान किया जा रहा है. इस कारण कई मशहूर हस्तियों ने इस रस्म का विरोध भी किया है.


बॉलीवुड एक्ट्रेस दीया मिर्जा ने 15 फरवरी 2021 को बिजनेसमैन वैभव रेखी से शादी की थी. शादी के बाद इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट लिखकर बताया था कि उन्होंने और उनके पति ने पारंपरिक रस्म कन्यादान और विदाई न करने का फैसला किया. उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा था, “ये वक्त है कि महिलाओं को खुद के लिए फैसले लेने का, अपनी शक्ति को पहचानने का और पुरानी चीजों को नया रूप देने का.”  


सिर्फ मशहूर हस्ती ही नहीं, बल्कि आम लोग भी अब इन पुरानी परंपराओं पर सवाल उठा रहे हैं. 2019 में एक बंगाली पिता का वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ था. उन्होंने अपनी बेटी की शादी में कन्यादान करने से इनकार कर दिया था. उन्होंने अपने फैसले को सही ठहराते हुए कहा था कि वो अपनी बेटी को किसी चीज की तरह दान नहीं करना चाहते हैं. हालांकि सभी लोग कन्यादान के खिलाफ नहीं हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि इस रस्म को गलत समझा जाता है.


कन्यादान पर हिंदू मैरिज एक्ट क्या कहता है

हिंदू विवाह अधिनियम में कहा गया है कि अगर किसी इलाके, समुदाय या परिवार में कोई विशेष विवाह रिवाज है और वो रिवाज लंबे समय से चला आ रहा है, तर्कसंगत है, कानून के खिलाफ नहीं है, तो उस रीति-रिवाज को शादी के लिए मान्य माना जा सकता है.


एनआर रघवाचार्य की किताब हिंदू लॉ (आठवां एडिशन 1987) में बताया गया है कि हिंदू शादी की रस्मों में कन्यादान एक अहम हिस्सा है. हालांकि ये भी बताया गया है कि अगर कन्यादान की रस्म न भी हो तो भी शादी को अवैध नहीं माना जा सकता.


यही बात हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 7(2) में भी लिखी है. हालांकि ये भी माना जाता है कि खास समुदायों या परिवारों में अगर शादी की अलग रस्में हैं तो उनके लिए कन्यादान एक महत्वपूर्ण रस्म हो सकती है. लेकिन अगर ये रस्म न भी हो तो भी शादी को अवैध नहीं ठहराया जा सकता.


फिर शादी के लिए कौन सी रस्म जरूरी है?

हिंदू विवाह में कई तरह की रस्में की जाती हैं लेकिन इन रस्मों को करने का कोई एक तरीका नहीं है. ये रस्में हर इलाके, परिवार और उनकी परंपरा के हिसाब से अलग-अलग हो सकती हैं.


कुछ परिवार शादी के लिए बहुत सारी रस्में करते हैं तो वहीं कुछ परिवार सिर्फ जरूरी रस्में ही पूरी करते हैं. हालांकि, एक अहम रस्म 'सप्तपदी' जरूर होती है. इस रस् के बाद ही दूल्हा-दुल्हन को विवाहित माना जाता है.


सप्तपदी में दूल्हा-दुल्हन पवित्र अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं. हर फेरे के साथ वो शादी के अलग-अलग वचन लेते हैं. ये वचन स्वास्थ्य, खुशहाली, एक-दूसरे का ख्याल रखने और सम्मान करने से जुड़े होते हैं. जब ये सात फेरे पूरे हो जाते हैं तब शादी को संपन्न माना जाता है और दूल्हा-दुल्हन को पति-पत्नी का दर्जा मिल जाता है.



सप्तपदी शब्द का मतलब क्या होता है?

संस्कृत में सप्तपदी का मतलब होता है सात कदम. 'सप्त' का मतलब है सात और 'पदी' का मतलब है कदम. शादी की रस्मों के दौरान दूल्हा-दुल्हन जो सात फेरे लेते हैं, उन्हें ही सप्तपदी कहते हैं. पवित्र अग्नि के सामने ये सात फेरे लिए जाते हैं. माना जाता है कि ये अग्नि ही इन सात शादी के वचनों की साक्षी होती है.


जिस तरह ईसाई धर्म में शादी के वचन को 'आई डू' (I Do) के साथ जोड़ा जाता है, उसी तरह हिंदू शादी में सप्तपदी को शादी के वचन के तौर पर देखा जाता है.  लेकिन शायद इसलिए क्योंकि हिंदू श्लोक संस्कृत में होते हैं, बहुत से लोगों को ये नहीं पता होता कि शादी के समय हम असल में कौन-से वचन लेते हैं.


क्यों जरूरी है सप्तपदी की रस्म?

आर्ट ऑफ लिविंग की वेबसाइट के अनुसार, ये रिवाज इसलिए इतना पवित्र माना जाता है क्योंकि इस दिन आपको भगवान शिव और उनकी पत्नी देवी पार्वती के रूप में देखा जाता है. तो आपका मिलन उतना ही अनोखा है जितना कि इन देवताओं का.


इसी कारण आप देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं. आपके और आपके जीवनसाथी के बीच इस पवित्र और शुभ मिलन को देखने के लिए परिवार और दोस्तों को बुलाया जाता है.


दक्षिण भारत में जहां शादी की रस्मों में सप्तपदी को बहुत महत्व दिया जाता है, वहीं उत्तर भारत और कुछ अन्य इलाकों में इसे 'सात फेरे' के नाम से जाना जाता है. माना जाता है कि ये सात फेरे आपके साथी के साथ सात जन्मों तक के बंधन का प्रतीक होते हैं. 


कैसे शुरू हुई सप्तपदी की परंपरा?

कहा जाता है कि सप्तपदी की परंपरा सती सावित्री से जुड़ी हुई है. मान्यता है जब सती सावित्री के पति सत्यवान की अचानक मृत्यु हो जाती है तो सती सावित्री मृत्यु के देवता यमराज के पीछे चल पड़ती हैं जो सत्यवान की आत्मा को ले जा रहे होते हैं.


जब यमराज को पता चलता है कि सावित्री उनके पीछे आ रही हैं तो वे उन्हें वापस जाने के लिए कहते हैं. सावित्रीकहती हैं कि वह उनके साथ पहले ही सात से ज्यादा कदम चल चुकी हैं और इसलिए उनकी सहेली बन गई हैं. एक सहेली के रूप में वह उनसे बातचीत शुरू करती हैं. फिर अपनी बुद्धि और चतुराई से वह यमराज को ही मना लेती हैं, जो उनके पति को फिर से जीवनदान दे देते हैं.

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