मजदूरों के आगमन से गुलज़ार होने लगें हैं वारिसलीगंज की अनुसूचित बस्तियां।

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मजदूरों के आगमन से गुलज़ार होने लगें हैं वारिसलीगंज की अनुसूचित बस्तियां।


-मनरेगा से नहीं मिलती है मजदूरों को पर्याप्त काम, आर्थिक तंगी से पड़ता है जूझना


प्रतिनिधि विश्वास के नाम वारिसलीगंज:

नौ महीनों बाद घर लौटे मज़दूरों से अनुसूचित बस्तियों की चहल पहल बढ़ रही है। कोई ट्रेन से तो को बसों में भरकर अपने गांव स्थित घर लौट रहे हैं। जबकि अक्टूबर माह से पुनः पलायन शुरू हो जाएगा। मैं बात कर रहा हूँ ग्रामीण क्षेत्र के युवा मजदूरों की। जो पूरे नौ महीने बाद अपने घर को लौटे हैं। अनुसूचित बस्तियों के फार्च्यून की दुकानों से लेकर झोला छाप चिकित्सकों, ताड़ी आदि नशीले पदार्थ के विक्रेताओं समेत स्थानीय बाजार की चलती आ जाती है। जो महज तीन महीने तक रहती है। 

 जानकारी हो कि क्षेत्र के अधिकांश अनुसूचित टोले के युवा मजदूर जुलाई से सितंबर माह के बीच मजदूर ठेकेदारों से बतौर अग्रिम दादन के रूप में प्रति जोड़ा (स्त्री पुरुष) पचास हज़ार से 70 हज़ार रुपये तक दादनी लेते हैं। जो अक्टूबर माह में सपरिवार यहां से पंजाब, हरियाण, बंगाल, छतीसगढ़, दिल्ली, चंडीगढ़, ऊतर प्रदेश आदि राज्यों के संबंधित इंट भट्ठा पर पलायन कर जाते हैं। जहां दिनरात हाड़तोड़ मेहनत कर दादनी चुकाते उनका नौ माह का समय समाप्त हो जाता है। ऒर पुनः बची खुची मजदूरी के रूप में थोड़ी बहुत नगदी एवं भाड़ा देकर मजदूरों के घर वापसी होती है। कथित मजदूर  ठेकेदार एवं भट्ठा मालिक द्वारा अनपढ़ एवं सीधे साधे मजदूरों का आर्थिक एवं शारीरिक शोषण किया जाता है। मकनपुर ग्रामीण मजदूर मनक मांझी, पिंकी देवी, लक्ष्मी देवी, वंशी मांझी आदि बताते हैं कि हमलोग जो अग्रिम लेकर भट्ठा पर जाते हैं तो वहां खाना एवं दवा आदि के अलावे नकदी नही दिया जाता है आने के समय ठेकेदार हिसाब गड़बड़ कर टूट गिरा देते हैं। अर्थात जो अग्रिम दिया जाता है उसी में नौ महीने बाल बच्चों के साथ कमाई करता है। आने के समय हिसाब बराबर या बकाया देकर भेजा जाता है। 

मजबूरी में करते हैं पलायन-

मकनपुर गांव के मजदूर बताते हैं कि हमलोग शौक से दूसरे प्रदेश नहीं जाते हैं। धान की कटनी के बाद किसानों के घर समुचित काम नहीं मिलता है। जबकि मजदूरों के लिए संचालित मनरेगा योजना में वयापक फर्जीवाड़ा हो रहा है। हम मजदूरों की जगह मशीनों से कार्य होता है। और पैसे की निकासी फर्जी तरीके से मजदूरों के नाम पर हो रही है। इसलिए यहां भूखों मरने से अच्छा पलायन करना होता है। मजदूरों की कमाई का मोटा हिस्सा कथित रूप से मजदूर ठेकेदारों की जेब मे जाती है। अनपढ़ मजदूरों को हिसाब किताब में उलझाकर अपनी जेब भरते हैं। इस कारण क्षेत्र के एक दर्जन से अधिक मजदूर ठेकेदार (गैर निबंधित) आज बड़े बड़े मकान एवं वाहनों के मालिक बने बैठे हैं। और मजदूर आज भी फटेहाल जीवन जीने को विवश हैं।

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